मोहब्बत की दुकान" या राजनीति की रंगीली गलियाँ?
2024 के चुनावी समर से लेकर अब तक, राहुल गांधी एक ही तख्ती लेकर देशभर में घूम रहे हैं — "मोहब्बत की दुकान खुली है, नफरत के बाज़ार में"। देखने-सुनने में यह लाइन जितनी मासूम लगती है, असलियत में उतनी ही गूढ़ और गड़बड़झाला है। कहने को तो राहुल जी मोहब्बत बेच रहे हैं, लेकिन यह 'दुकान' न जाने किस गली में खोली गई है, जहाँ हर ग्राहक पर शक किया जाता है, और दुकानदार खुद हर बात में नाराज़ होकर ट्विटर पर प्रवचन देने लगते हैं। अब भला बताइए, भारत जैसे सांस्कृतिक, पारंपरिक और मूल्यनिष्ठ देश में कोई मोहब्बत की दुकान खोलकर राजनीति करने लगे, तो जनता उसे नेता मानेगी या फिर गली का कोई बॉलीवुड टपोरी? भारत की संस्कृति में "दुकान" शब्द का तात्पर्य व्यापार से है — वह व्यापार चाहे भावनाओं का हो या चीज़ों का। परंतु हमारे प्यारे पप्पू ने तो इस शब्द को भी एक नए ही आयाम पर पहुँचा दिया है। मोहब्बत बेचकर प्रधानमंत्री बनने का सपना देखना शायद राहुल गांधी की सबसे बड़ी राजनीतिक मूर्खता है — या कहें, फुल टाइम ड्रामा और पार्ट टाइम पॉलिटिक्स। यहां भारत है साहब, बैंकॉक नहीं! जहाँ ऐसी दुकानों के न...